Friday 10 July 2015

"जाकी रही भावना जैसी - प्रभु मूरत देखी तिन तैसी"

जिस हृदय में विवेक का, विचार का दीपक जलता है वह हृदय मंदिर तुल्य है।

विचार शून्य व्यक्ति, उचित अनुचित, हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता। विचारांध को स्वयं बांह्माड भी सुखी नहीं कर सकते।

मानव जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें विचार करने की क्षमता है, विचार मनुष्य की संपत्ति है। विचार का अर्थ केवल सोचना भर नहीं है, सोचने के आगे की प्रक्रिया है। विचार से सत्य-असत्य, हित-अहित का विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। विचार जब मन में बार-बार उठता है और मन व संस्कारों को प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण करता है। विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर-रूप है।

जीवन निर्माण में विचार का महत्व चिंतन और भावना के रूप में है। मनुष्य वैसा ही बन जाता है जैसे उसके विचार होते हैं। विचार ही हमारे आचार को प्रभावित करते हैं। विचार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सद्विचार, सुविचार या चिंतन मनन के रूप में।

चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारणा करते हैं। भावना संस्कार बनती है और हमारे जीवन को प्रभावित करती है। भावना का अर्थ है मन की प्रवृत्ति। भाव से रहित आत्मा कितना भी प्रयत्‍‌न करे वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकती।

शास्त्रों में मोक्ष के जो चार मार्ग बताए गए हैं- दान, शील, तप और भाव यही धर्म है। हम मंदिर में जाकर पूजा करते हैं। कोई मिट्टी की मूरत को पूजता है, कोई सोने-चांदी की, पर भगवान किसमें है? भगवान तो भाव में हैं, मन में हैं।

भावना और विश्वास ही मुख्य कारण है। हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है - भावना पर ही विकास और ह्रास है।

वस्तुत: मन में उठने वाले किसी भी ऐसे विचार को जो कुछ क्षण स्थिर रहता है और जिसका प्रभाव हमारी चिंतन धारा व आचरण पर पड़ता है उसे हम भावना कहते हैं।

शुद्ध पवित्र और निर्मल भावना जीवन के विकास का उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त करती है। भावना एक प्रकार का संस्कार मूलक चिंतन है।