Saturday 12 September 2015

मांस बिक्री पर प्रतिबन्ध – कुछ आवश्यक पहलु

मांस बिक्री पर प्रतिबन्ध – कुछ आवश्यक पहलु

एक दो शहरों या राज्यों में मांस की बिक्री बंद होने पर जैन समाज का दंभ एवं अन्य कई समुदायों तथा मीडिया की प्रतिक्रिया काफी चिंता का विषय है l
 
हमें हर स्थिति में यह ध्यान रखना है कि हम कहीं समस्या का हिस्सा तो नहीं बन रहे हैं, या जिसे हम समाधान समझ रहे हैं, कहीं वो किसी बड़ी समस्या को तो नहीं पैदा कर देगा ? एक अल्पसंख्यक समाज होने के नाते हमें इस बात का भी ध्यान रखना है कि कहीं हम राजनितिक शतरंज के मोहरे ना बन जाएं या स्वयं मुद्दा ना बन जाएं l 

हमारी स्थिति खरबूजे जैसी है – छूरी खरबूजे पर गिरे, या खरबूजा छूरी पर – कटना हर हाल में खरबूजे को ही है l
 
नेमिनाथ भगवान् का वैराग्य प्रसंग याद आता है l वो राजुल से शादी हेतु बारात ले कर जा रहे हैं l अचानक उनके कान में पशुओं की चीत्कार सुनाई पड़ती है l पूछने पर पता चलता है शादी में मांसाहार की व्यवस्था है l क्या वो ज्ञान देने में ही उलझ जाते हैं या विरक्त भाव से वहाँ से चले जाते हैं आत्म कल्याण के लिए ? जबाब है कि विरक्त भाव से वहाँ से चले जाते हैं आत्म कल्याण के लिए |
 
जैन यानि सहजता या सरलता l एक ऐसा व्यक्तित्व जो किसी के लिए बाधा नहीं बनता, किसी के लिए रोड़े नहीं अटकाता l जो अपने काम से काम रखता है l पर मेंकर्तत्व, ममत्व या भोगत्व का भाव नहीं रखना हमारा ध्येय है l फिर हम अनावश्यक विवादों में इस भ्रान्ति के साथ क्यों उलझ रहें हैं जैसे सारी दुनिया को बदलने का दायित्व हमने ही ले रखा है l
 
एक सांप अगर मेंढक को खा रहा हो तो जैन धर्म सांप को पत्थर मारने की बात नहीं करता है l हमें शांति से और वीतरागी भाव से चले जाना है l हमें सांप से भी नफरत नहीं करनी है l सब अपने अपने कर्मों के अनुसार परिणमन कर रहे हैं l हमें अपना भाव नहीं बिगाड़ना है l
 
वस्तु स्वातंत्रय या यह आस्था कि एक द्रव्य दुसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता या उसमे कुछ हेर-फेर नहीं कर सकता – यह जैन संस्कार का आधार-स्तम्भ है l फिर हम किस भ्रम में फंसे हैं l हमारा खुद पर जोर नहीं चलता, अपने परिवार पर जोर नहीं चलता, अपने समुदाय पर जोर नहीं चलता तो फिर हम अन्यान्य समुदायों पर परिस्थिति की जटिलता को समझे बिना जोर जबरदस्ती क्यों करना चाहते हैं ? हम दूसरों के व्यव्हार को नहीं बदल सकते, बल्कि दूसरों के व्यव्हार के प्रति हमारी जो प्रतिक्रिया है, हमारा कार्य क्षेत्र सिर्फ इस प्रतिक्रिया पर नियंत्रण हासिल करने का है, जिसमे भी हम अक्सर असफल हो जाते हैं l
 
जैनिस्तान जैसे शब्दों को इस्तेमाल करने वालों से हमें उलझना नहीं है, उनकी उपेक्षा ही कर देनी है l वरना हम एक चक्रव्यूह में अनावश्यक रूप से फँस जाएंगे l समाज के जिन सदस्यों को बयान देना आवश्यक है उन्हें सम्पूर्ण समाज के दूरगामी हितों को ध्यान में रखना है l 

स्थानीय मुद्दों में दूर बैठे लोगों को ज्यादा उकसाने वाले वक्तव्य नहीं देने हैं l मीडिया द्वारा उत्तेजित करने के प्रयासों को भी हमें विवेकपूर्ण तरीके से समझना और अत्यंत संयम पूर्वक निपटाना है l
 
दरअसल मांस बिक्री बंदी की ये घटना इस स्वरुप में बदल जायेगी ये किसी ने नहीं सोचा था l जिनके प्रयास से ऐसा हुआ उनको भी ये आभास नहीं था कि मुद्दा इतना विकराल रूप ले लेगा l कुछ भ्रांतियां सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के कारण भी पैदा हो गयी जिसने गुजरात में विशिष्ट क्षेत्रों में पर्युषण के दौरान मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के फैसले को बरकरार रखा l 

जस्टिस काटजू ने अपने ब्लॉग में ये लिखा है कि ये उनके जीवन का सबसे कठिन निर्णय था। उन्होंने इसके तीन कारण बताये:
 
(1) प्रतिबंध केवल 9 दिनों की छोटी अवधि के लिए लगाया गया था।
(2) अहमदाबाद सहित पश्चिमी भारत के कई हिस्सों में जैन समुदाय बड़ी संख्या में रहता है।
(3) प्रतिबंध नया नहीं था, लेकिन कई दशकों के लिए हर साल लगाया गया था। संदर्भ में सम्राट अकबर के द्वारा जैनियों के सम्मान में लिए फैसले का जिक्र किया गया था।
 
हमने सिर्फ नौ दिन वाली बात पकड़ ली और बाकि दोनों पहलुओं को गौण कर दिया। 2 - 4 दिन के बंद का एक स्वीकृत सिस्टम चल रहा था l हमने उसे उद्वेलित होकर ज्यादा ही खींच दिया l
 
दरअसल, संथारा आन्दोलन ने समाज में एक नयी उर्जा का संचार कर दिया है जिसे अगर सही दिशा नहीं दी गयी तो लोग हर बात को मुद्दा बना लेंगे और अंत में आपस में ही उलझ जाएंगे। मुक़दमे में फ़िलहाल कुछ होना नहीं है l पर हमारा हर कदम संतुलित होना चाहिए l
 
मांस बिक्री बंदी एक आँखे खोलने वाला वाकिया हैl अल्पसंख्या के कारण कुछ हिस्सों को छोड़ कर हम चुनावी समीकरण में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकते, इस लिए राजनितिक दलों का स्वार्थ हमसे भिन्न मान्यता रखने वाले और हमसे संख्या में बड़े समुदाय के विचारों की पैरवी करने में ही सिद्ध होता दिखेगा l दुसरे, मीडिया और राजनेताओं की नए मुद्दे पैदा करने की आवश्यकता भी हमारे लिए घातक बन गयी है l और तीसरे मीडिया की व्यापक पहुंच के कारण स्थानीय मुद्दे भी अब राष्ट्रिय मंच तक पहुँच जाते हैं l    
 
आज हम अत्यंत अल्पसंख्या में सिमट कर रह गए हैं l देश की राजनीती में हमारा कोई विशेष प्रतिनिधित्व नहीं है l धर्म और जात-पात पर आधारित वोट के गणित में हम कहीं नहीं टिकते l पर स्ट्रेटेजिक तरीके से कार्य करके हम अपनी भूमिका को सकारात्मक रूप से महत्वपूर्ण बनाए रख सकते हैं, और देश को इसकी आवश्यकता भी है l फिर संथारा जैसे मुद्दे ने ये दिखा दिया है हमें अपने अस्तित्व को सम्हालना कितना कठिन होने वाला है l एक स्टे आर्डर को जीत मानने से बड़ी गलती और कोई नहीं हो सकती है l
 
हमें अपने अन्य देशवाशियों से सौहार्दपूर्ण तरीके से ही पेश आना है l किसी की आँख की किरकिरी नहीं बनना है l दुर्भाग्य से कुछ लोग क्षणिक राजनितिक स्वार्थों के कारण समाज के भविष्य को दाव पर लगाने में लग गएँ हैं l कुछ गुरु महाराज भी व्यावहारिक धरातल को समझे बिना अनजाने में ही ऐसे वक्तव्य दे दे रहे हैं जो आग में घी का काम कर रहे है l
 
अन्य धर्मावलम्बी या विपरीत विचारधारा के लोग जिनका व्यवसाय या जिनकी जीवन चर्या हमारे कारण प्रभावित हो रही है, उनसे हम क्या उम्मीद रखते है ? ये राजा-महाराजा वाला दौर नहीं है l मीडिया हर बात दिखलाता है, हर मुद्दे को चटखारेदार बनाने की कोशिश करता है l कुछ लोग टीवी पर आते ही विवेक खो देते हैं l अनावश्यक ही सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में विवादों में उलझ जाते है और कीमत समाज चुकाता है l हम जैन हैं, संयमधारी समझे जाते हैं और सबसे पढ़ी-लिखी कौम है l हमें अपना विवेक किसी भी परिस्थिति में नहीं खोना चाहिए l
 
हम स्वेच्छा से शाकाहार अपनाने का प्रचार प्रसार करना चाहिए |

Friday 10 July 2015

"जाकी रही भावना जैसी - प्रभु मूरत देखी तिन तैसी"

जिस हृदय में विवेक का, विचार का दीपक जलता है वह हृदय मंदिर तुल्य है।

विचार शून्य व्यक्ति, उचित अनुचित, हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता। विचारांध को स्वयं बांह्माड भी सुखी नहीं कर सकते।

मानव जीवन ही ऐसा जीवन है, जिसमें विचार करने की क्षमता है, विचार मनुष्य की संपत्ति है। विचार का अर्थ केवल सोचना भर नहीं है, सोचने के आगे की प्रक्रिया है। विचार से सत्य-असत्य, हित-अहित का विश्लेषण करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। विचार जब मन में बार-बार उठता है और मन व संस्कारों को प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण करता है। विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर-रूप है।

जीवन निर्माण में विचार का महत्व चिंतन और भावना के रूप में है। मनुष्य वैसा ही बन जाता है जैसे उसके विचार होते हैं। विचार ही हमारे आचार को प्रभावित करते हैं। विचार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सद्विचार, सुविचार या चिंतन मनन के रूप में।

चिंतन-मनन ही भावना का रूप धारणा करते हैं। भावना संस्कार बनती है और हमारे जीवन को प्रभावित करती है। भावना का अर्थ है मन की प्रवृत्ति। भाव से रहित आत्मा कितना भी प्रयत्‍‌न करे वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकती।

शास्त्रों में मोक्ष के जो चार मार्ग बताए गए हैं- दान, शील, तप और भाव यही धर्म है। हम मंदिर में जाकर पूजा करते हैं। कोई मिट्टी की मूरत को पूजता है, कोई सोने-चांदी की, पर भगवान किसमें है? भगवान तो भाव में हैं, मन में हैं।

भावना और विश्वास ही मुख्य कारण है। हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है - भावना पर ही विकास और ह्रास है।

वस्तुत: मन में उठने वाले किसी भी ऐसे विचार को जो कुछ क्षण स्थिर रहता है और जिसका प्रभाव हमारी चिंतन धारा व आचरण पर पड़ता है उसे हम भावना कहते हैं।

शुद्ध पवित्र और निर्मल भावना जीवन के विकास का उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त करती है। भावना एक प्रकार का संस्कार मूलक चिंतन है।